(तर्ज-कूण सुणलो कीणे सुनावां…)
अभी भी समय है, गुरु को मनाले ।
गुरु को मनाले अपने प्रश्नु को रिझाले ।
चरण थाम इनके अपने भाग्य जगाले ।
इनकी दया की सीमा नहीं है |
रस्ता उजागर भी धीमा नहीं है |
तू आँखों से अपनी परदा हठाले ।|१|।
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जुरुदेव से मुँहमांगा है मिलता ।
मन मूढ़ फिर क्यूं सस्ता तू लेता ।
दुर्लभ की खातिर अर्जी लगादे ।।२|।
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चला आ शरण में, मिटाने हो गर दुःख ।
इन चरणों में तो बस सुख ही है सुख |
अगर चल न पाये तो खिसक के ही आले ।।३ ||
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सब तीर्थ प्रश्नू जी के, चरण में बसे हैं |
चरण वो गुरुजी के मन में बसे हैं ।
इन्हें छू के तू सभी तीर्थ नहाले ।।॥४।।
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अगर तुझमें कुछ भी लियाकत नहीं है |
निश्चय भी करने की, ताकत नहीं है ।
बचालो गुरूजी मुझको, इतना तो कह दे ।।५ ||
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